तू मेरे गांव को गवार कहता है।
दोस्तों आजकल की दौड़ में हम गांव से ज्यादा शहरों की महत्व देते हैं, लेकिन गांव में जो रहने का मजा है वह शहरों में आज भी नहीं मिलती। वहां के खेत खलिहान बाग बगीचे हमारे मन को लुभा लेता है, गांव के लोगों के चेहरे पर हमेशा उत्साह रहता है, लेकिन शहरों में लोग भाग दौड़ में ही परेशान रहते हैं, आज के इस कविता में मानव जीवन पर आधारित कविता,
तेरे बुराइयों को हर अखबार कहता है ,
और तू मेरे गांव को गवार कहता है।
ऐ शहर मुझे तेरी औकात पता है,
तू चुल्लू भर पानी को भी वाटर पार्क कहता है।
थक गया हर शख्स काम करते-करते,
तू इस अमीरी को बाजार कहता है।
गांव चलो वक्त ही वक्त है सब के पास,
तेरी सारी फुर्सत तेरा इतवार कहता है।
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मौन होकर फोन पर रिश्ते निभाए जा रहे हैं,
तू इस मशीनी दौड़ को परिवार कहता है।
जिनकी सेवा में खफा देते हैं जीवन सारा,
उन मां-बाप को अब तू भार कहता है।
वो मिलने आए थे तो कलेजा साथ लाते थे,
तू दस्तूर निभाने को रिश्तेदार कहता है।
बड़े-बड़े मसले हल करती थी पंचायतें,
2तू अंधी भ्रष्ट दलीलों को दरबार कहता है।
बैठ जाते थे अपने पराए सब बैलगाड़ी पे,
पूरा परिवार भी ना बैठ पाए उसे तू कार कहता है।
अब बच्चे भी बड़ों का आदर भूल बैठे हैं,
तू इस नए दौर को संस्कार कहता है।
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